बलिहारी गुरू आपनें जिन गोबिंद दियो मिलाए..

कर जोडूँ विनती करूँ, धरूँ चरन पर शीश।


गुरू जी रामदेवानंद जी महाराज नै, दियो नाम बक्शीश।।





कोटी कोटी सिजदा करूँ, कोटी कोटी प्रणाम।
चरण कमल मै राखियो, मैं बांदी जाम गुलाम।।

कुत्ता तेरे दरबार का, मोतिया मेरा नाम।
गले प्रेम की रस्सी, जहाँ खैंचो वहाँ जाऊँ।।

तौ तौ करो तो बावरो, दूर दूर करो तो जाऊँ।
ज्यौं राखो त्यौं ही रहूँ, जो देवो सो खाऊँ।।

अवगुण किये तो बहुत किये, करत ना मानी हार।
भावे बन्दा बख़्शियो, भावे गर्दन तार।।

अवगुन मेरे बाप जी, बख़्शो गरीब निवाज।
 जो मैं पूत कुपूत हुँ, बहोर पिता को लाज।।

मैं अपराधी जन्म का, नखशिख भरें विकार।
तुम दाता दुख भंजना, मेरी करो सम्भार।।

गुरू जी तुम ना भूलियो, चाहे लाख लोग मिल जाहिं।
हमसे तुमको बहुत हैं, तुम जैसे हमको नाहीं।।

जै इब कै सतगुरू मिलै, सब दुख आँखों रोईं।
चरणों उपर शीश धरूँ, कहू जो कहनी होई।।

पूर्ण ब्रह्म कृपानिदान, सून केशो करतार।
गरीबदास, मुझ दीन की, रखियो बहुत सम्भार।।

बन्दी छोड़ दयाल जी, तुम तक हमरी दौड़।
जैसे काग जहाज का, सूझत ओर ना ठोर।।

कबीर, ये तन विष की बेलड़ी, गुरू अमृत की खान।
शीश दिये जो गुरू मिलै, तो भी सस्ता जान।।

सात द्वीप नौ खण्ड मै, गुरू से बड़ा ना कोए।
करता करें ना कर सकें, गुरू करें सो होए।।

गुरू मानुष कर जानते, ते नर कहिये अंध।
होवै दुखी संसार मै, आगें काल के फंद।।

गुरू गोबिंद दोनो खड़े, काके लागू पाए।
बलिहारी गुरू आपनें  जिन गोबिंद दियो मिलाए।।

सतगुरू के उपदेश का, लाया एक विचार।
जै सतगुरू मिलते नहीं, जाता यम के द्वार।।

यम द्वार मै दूत सब, करते खिंचा-तान।
उनतै कबहू ना छूटता फिर फिरता चारों खान।।

कबीर, चार खानी में भ्रमता, कबहू ना लगता पार।
सौ फेरा सब मिट गया, मेरे सतगुरू के उपकार।।

कबीर, सात समुंद्र की मसि करूँ, लेखनि करूँ बनिराए।
धरती का कागज करूँ, गुरू गुण लिखा ना जाए।।

सिर साँटे की भक्ति है, और कछू नहीं बात।
सिर के साँटे पाइयो, अवगत अलख अनाथ।।

गरीब, सीस तुम्हारा जाएगा, कर सतगुरू की भेंट।
नाम निरंतर लीजियो, यम की लगै ना फेंट।।

।। सत् साहेब ।।

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