हठयोग करके ध्यान करना व्यर्थ है- Exclusive

----हठयोग करके ध्यान करना व्यर्थ है ----

हठ योग 


गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 में एक स्थान पर बैठ कर
हठ योग द्वारा अभ्यास करने को कहा। जब की
गीता अध्याय 3 श्लोक 4 से 8 तक इस के विपरीत
कहा है कि जो एक स्थान पर बैठकर हठ करके इन्द्रियों को रोककर साधना करते है वे पाखण्डी है। एक स्थान पर बैठा रहा तो निर्वाह कैसे होगा इस अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 के आधार पर आज कल अनजान जिज्ञासु भक्त आत्म ध्यान योग केन्द्रों के चक्कर लगाते हैं। ध्यान साधना कोई अढाई
घण्टे सुबह-शाम आवश्यक बताता है, कोई किसी
फिल्मी गाने की धुन बजा कर नाच-नाच कर।
 फिर थक जाए तब शव-आसन में निढाल (मृतसम) होकर आनन्द तथा फिर निन्द्रा को ध्यान की अंतिम स्थिति बताते हैं।
फिर ध्यान कहाँ लगाएँ?
कहते हैं त्रिकुटी पर लगाएँ।
त्रिकुटी कहाँ?
अनजान साधक को कोई ज्ञान नहीं।



फिर उसे दोनों भौंवों (सेलियों जो आँखों के ऊपर
मस्तिक में बाल उगे हैं उन्हें सेली/भौंव कहते हैं)
के बीच जहाँ नाक समाप्त होता है तथा मस्तिक
आरम्भ होता है। वह अनजान साधक उस नादान गुरु के
बताए मार्ग पर प्रयत्न करता है। जब कुछ भी हासिल
नहीं होता तो वह गुरुदेव कहता है - क्या दिखाई
दिया? साधक कहता है कुछ नहीं। फिर गुरुदेव बताता
है कि कुछ आवाज सुनी। साधक कहता है - हाँ
सुनी। बस और क्या देखना है, यही है
अनहद शब्द। फिर कहता है कि दोनों आँखों की
पुतलियों के ऊपर के हिस्से को ऊंगलियों से दबाओ। कुछ प्रकाश
दिखाई दिया? साधक कहता है - हाँ, दिखाई दिया। बस
यही ज्योति स्वरूप (प्रकाशमय) परमात्मा है। अनजान
साधक उस अंधे गुरु के साथ अपना जीवन बर्बाद कर जाता
है। ध्यान के अभ्यास से ध्यान यज्ञ हो जाती है।
जिस का फल स्वर्ग, सांसारिक भोग तथा फिर कर्माधार पर नरक,
चैरासी लाख जूनियाँ। ध्यान का अभ्यास भी इतना हो
कि वह निर्विकल्प (संकल्प रहित) हो जाए। फिर यह
लाभ है (स्वर्ग व सांसारिक भोग का फल मिलेगा) जो अढाई घंटे व
नाच-कूद करके ध्यान अभ्यास करते हंै उन्हें कुछ भी
प्राप्ति नहीं है।


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एक समय वन में एक साधक ने ध्यान में समाधिस्थ हो जाने का
इतना अभ्यास कर लिया कि कई-2 दिन तक ध्यान (मैडिटेशन) में
कुछ खाए पिये बिना ही लीन रहने लगा।
उसी जंगल में बहुत से सन्यासी भी साधना
करते थे। एक दिन उस योगी के मन में आया कि साथ वाले
गांव में जा कर छा (लस्सी) पी कर आता हूँ। उस
उद्देश्य से वह योगी सुबह सूर्योंदय होने से पहले
नजदीक के गाँव में गया। एक दरवाजा खट-खटाया। उसमें से
एक वृद्धा निकली तथा कारण पूछा तो योगी ने कहा
::- माई छा (लस्सी) पीनी है। इस पर माई ने
कहा आओ बैठो, महात्मा जी। मैं अभी छा
बनाती हूँ अर्थात् दूध रिड़कती हूँ। महात्मा
जी को उचित आसन दे दिया और स्वयं दूध रिड़कने लग गई।
माई को लगभग एक घंटा छा बनाने में लग गया। फिर छा में नमक
डाल कर गिलास भर कर महात्मा (योगी) जी को
कहा महाराज जी छा पीलो!। बार-बार आवाज लगाने
पर भी महाराज जी नहीं बोले। तब
आसपास के व्यक्तियों को इक्ट्ठा किया तथा बताया कि यह
महात्मा जी छा पीने आया था। मैंने कहा महाराज
अभी छा तैयार करती हूँ। लगभग एक घंटा लगेगा।
इसने कहा ठीक है माई, मैं अपना भजन करता हूँ।
अब यह बोल ही नहीं रहा। (उस महात्मा
जी ने सोचा कि माई छा तैयार करने में एक घंटा लगाएगी
तब तक क्यों न ध्यान लगा कर ध्यान साधना करूँ। ध्यान से अन्दर
कई नजारे दिखाई देते हैं। जिसको यह चसका पड़ गया वह
फिर बाहर का दृश्य कम अन्दर का ज्यादा देखता है। जैसे कोई
मेले में चला जाए वहाँ नाना प्रकार के खेल-नाटक-गाने बजाने व
वस्तुएँ होती हैं। उन्हें देखने में इतना व्यस्त हो
जाता है कि उसे समय का भी ज्ञान नहीं
रहता। ठीक इसी प्रकार अन्दर भी ऐसे
फिल्में चल रही हैं जिस साधक की अच्छी
साधना हो जाती है उसे अन्दर के नजारे दृष्टी
गोचर होने लगते हैं। इसी कारण वह कई घंटों व कई
दिनों तक सुध-बुध खो कर मस्त बैठा रहता है। वह
महात्मा जी समाधिस्थ अवस्था में था।) सब व्यक्तियों ने
भी आवाज लगाई परंतु महाराज जी टस से मस
नहीं हुआ। सभी ने मिल कर यही
फैसला किया कि इसके किसी साथी साधक को बुलाते
हैं। वही युक्ति से इसे उठाएगा। ऐसा सोच कर एक
व्यक्ति वहाँ पहुँचा जहाँ और कई साधक साधना करते थे।
जब उन साधुओं को पता लगा तो दो-तीन वहाँ पहुँचे
जहाँ वह महात्मा समाधिस्थ अवस्था में बैठा हुआ था।
उन्होंने भी कोशिश की परंतु महाराज नहीं
उठा। तब उसके साथी साधकों ने कहा कि यह
समाधी में है। इसे छेड़ो मत। अपने आप उठेगा। ऐसा
ही किया गया। वर्षों बीत गए परंतु वह साधक
अपनी समाधी से नहीं उठा। तब उसका अलग
से छप्पर बना दिया। हजारों वर्षों के बाद उठा। (उस समय वह
गाँव भी उजड़ चुका था। कोई नहीं था।) उठते
ही कहता है - लाओ माई छा (लस्सी)।

वर्षों व्यर्थ गंवाए योगी, इच्छा मिटी न चाह।
उठ नादान पुछत है, लाओ माई छाह।।

अब पाठक विवेक करें कि इतनी साधना के ध्यान अभ्यास से
भी मनोकामना व भोग पदार्थ की चाह नहीं
मिटी तो अढाई घंटे व नाच-कूद करके ध्यान अभ्यासी
क्या प्राप्त कर सकेंगे? उस साधक की ध्यान यज्ञ हुई
जिसका फल पूर्व बताया है। सतनाम बिना तथा पूर्ण गुरु के बिना
जीव का जन्म-मरण दीर्घ रोग नहीं कट
सकता।
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सतगुरूदेवजी की जय।
सत साहेब जी।

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