कबीर साहेब Vs ज्योति निरंजन, परमात्मा का सन्देश- Exclusive Report

सत साहिब

हमारे सभी धार्मिक ग्रन्थों व शास्त्रो में उस एक प्रभु मालिक/रब/ खुदा/अल्लाह/राम/साहेब/गोड/परमेश्वर की प्रत्यक्ष नाम लिख कर महिमा गाई है कि वह एक मालिक/प्रभु कबीर साहेब है जो सतलोक में मानव सदृश स्वरूप में आकार में रहता है।

"जीव हमारी जाती है, मानव धर्म हमारा।
हिन्दू मुस्लिम सीख ईसाई धर्म नहीं कोई न्यारा। "





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ज्ञान गंगा | Gyan Ganga

अवश्य जानिये


  1. कौन ब्रह्मा का पिता है? 
  2. कौन विष्णु की माँ? 
  3. शंकर का दादा कौन है?
  4. शेराँवाली माता (दुर्गा अष्टंगी) का पति कौन है?
  5. हमको जन्म देने व मरने में किस प्रभु का स्वार्थ है?
  6. पूर्ण संत की क्या पहचान है?
  7. हम सभी आत्मायें कहाँ से आई हैं?
  8. ब्रह्मा, विष्णु, महेश किसकी भक्ति करते हैं?
  9. तीर्थ, व्रत, तर्पण एवं श्राद्ध निकालने से कोई लाभ है या नहीं?
  10.  (गीतानुसार)समाधी अभ्यास (meditation), राम, हरे कृष्ण, हरि ओम, हंस, तीन व पाँच आदि नामों तथा वाहेगुरु आदि-आदि नामों के जाप से सुख एवं मुक्ति संभव है या नहीं?
11.  श्री कृष्ण जी काल नहीं थे। फिर गीता वाला काल कौन है?

"अमर करूँ सतलोक पठाऊँ तातें बंदीछोड़ कहाऊँ।"


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धर्मदास यह जग बौराना। कोइ न जाने पद निरवाना।।
यहि कारन मैं कथा पसारा। जगसे कहियो एक राम नियारा।।
यही ज्ञान जग जीव सुनाओ। सब जीवोंका भरम नशाओ।।
अब मैं तुमसे कहों चिताई। त्रयदेवनकी उत्पति भाई।।


कुछ संक्षेप कहों गुहराई। सब संशय तुम्हरे मिट जाई।।
भरम गये जग वेद पुराना। आदि रामका का भेद न जाना।।
राम राम सब जगत बखाने। आदि राम कोइ बिरला जाने।।
ज्ञानी सुने सो हिरदै लगाई। मूर्ख सुने सो गम्य ना पाई।।


मां अष्टंगी पिता निरंजन। वे जम दारुण वंशन अंजन।।
पहिले कीन्ह निरंजन राई। पीछेसे माया उपजाई।।
माया रूप देख अति शोभा। देव निरंजन तन मन लोभा।।
कामदेव धर्मराय सत्ताये। देवी को तुरतही धर खाये।।

पेट से देवी करी पुकारा। साहब मेरा करो उबारा।।
टेर सुनी तब हम तहाँ आये। अष्टंगी को बंद छुड़ाये।।
सतलोक में कीन्हा दुराचारि, काल निरंजन दिन्हा निकारि।।
माया समेत दिया भगाई, सोलह संख कोस दूरी पर आई।।

अष्टंगी और काल अब दोई, मंद कर्म से गए बिगोई।।
धर्मराय को हिकमत कीन्हा। नख रेखा से भगकर लीन्हा।।
धर्मराय किन्हाँ भोग विलासा। मायाको रही तब आसा।।
तीन पुत्र अष्टंगी जाये। ब्रह्मा विष्णु शिव नाम धराये।।

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तीन देव विस्त्तार चलाये। इनमें यह जग धोखा खाये।।
पुरुष गम्य कैसे को पावै। काल निरंजन जग भरमावै।।
तीन लोक अपने सुत दीन्हा। सुन्न निरंजन बासा लीन्हा।।
अलख निरंजन सुन्न ठिकाना। ब्रह्मा विष्णु शिव भेद न जाना।।


तीन देव सो उसको धावें। निरंजन का वे पार ना पावें।।
अलख निरंजन बड़ा बटपारा। तीन लोक जिव कीन्ह अहारा।।
ब्रह्मा विष्णु शिव नहीं बचाये। सकल खाय पुन धूर उड़ाये।।
तिनके सुत हैं तीनों देवा। आंधर जीव करत हैं सेवा।।

अकाल पुरुष काहू नहिं चीन्हां। काल पाय सबही गह लीन्हां।।
ब्रह्म काल सकल जग जाने। आदि ब्रह्मको ना पहिचाने।।
तीनों देव और औतारा। ताको भजे सकल संसारा।।
तीनों गुणका यह विस्त्तारा। धर्मदास मैं कहों पुकारा।।

गुण तीनों की भक्ति में, भूल परो संसार।
कहै कबीर निज नाम बिन, कैसे उतरैं पार।।



कबीर साहेब की काल से वार्ता


जब परमेश्वर ने सर्व ब्रह्मण्डों की रचना की और अपने लोक में विश्राम करने लगे। उसके बाद हम सभी काल के ब्रह्मण्ड में रह कर अपना किया हुआ कर्मदण्ड भोगने लगे और बहुत दुःखी रहने लगे। सुख व शांति की खोज में भटकने लगे और हमें अपने निज घर सतलोक की याद सताने लगी तथा वहां जाने के लिए भक्ति प्रारंभ की। किसी ने चारों वेदों को कंठस्थ किया तो कोई उग्र तप करने लगा और हवन यज्ञ, ध्यान, समाधि आदि क्रियाएं प्रारम्भ की, लेकिन अपने निज घर सतलोक नहीं जा सके क्योंकि उपरोक्त क्रियाएं करने से अगले जन्मों में अच्छे समृद्ध जीवन को प्राप्त होकर) जैसे राजा-महाराजा, बड़ा व्यापारी, अधिकारी, देव-महादेव, स्वर्ग-महास्वर्ग आदि (वापिस लख चैरासी भोगने लगे।
बहुत परेशान रहने लगे और परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना करने लगे कि
 हे दयालु ! हमें निज घर का रास्ता दिखाओ। हम हृदय से आपकी भक्ति करते हैं। आप हमें दर्शन क्यों नहीं दे रहे हो ? 

यह वृतान्त कबीर साहेब ने धर्मदास जी को बताते हुए कहा कि धर्मदास इन जीवों की पुकार सुनकर मैं अपने सतलोक से जोगजीत का रूप बनाकर काल लोक में आया।

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तब इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में जहां काल का निज घर है वहां पर तप्तशिला पर जीवों को भूनकर सुक्ष्म शरीर से गंध निकाला जा रहा था। मेरे पहुंचने के बाद उन जीवों की जलन समाप्त को गई। उन्होंने मुझे देखकर कहा कि
हे पुरुष ! आप कौन हो? आपके दर्शन मात्रा से ही हमें बड़ा सुख व शांति का आभास हो रहा है।
फिर मैंने बताया कि
मैं पारब्रह्म परमेश्वर कबीर हूं।
 आप सब जीव मेरे लोक से आकर काल ब्रह्म के लोक में फंस गए हो। यह काल रोजाना एक लाख मानव के सुक्ष्म शरीर से गंध निकाल कर खाता है और बाद में नाना-प्रकार की योनियों में दण्ड भोगने के लिए छोड़ देता है।
 तब वे जीवात्माएं कहने लगी कि
 हे दयालु परमेश्वर ! हमारे को इस काल की जेल से छुड़वाओ।
 मैंने बताया कि
 यह ब्रह्मण्ड काल ने तीन बार भक्ति करके मेरे से प्राप्त किए हुए हैं जो आप यहां सब वस्तुओं का प्रयोग कर रहे हो ये सभी काल की हैं और आप सब अपनी इच्छा से घूमने के लिए आए हो। इसलिए अब आपके ऊपर काल ब्रह्म का बहुत ज्यादा ऋण हो चुका है और वह ऋण मेरे सच्चे नाम के जाप के बिना नहीं उतर सकता। जब तक आप ऋण मुक्त नहीं हो सकते तब तक आप काल ब्रह्म की जेल से बाहर नहीं जा सकते। इसके लिए आपको मुझसे नाम उपदेश लेकर भक्ति करनी होगी। तब मैं आपको छुड़वा कर ले जाऊंगा। 

हम यह वार्ता कर ही रहे थे कि वहां पर काल ब्रह्म प्रकट हो गया और उसने बहुत क्रोधित होकर मेरे ऊपर हमला बोला। मैंने अपनी शब्द शक्ति से उसको मुर्छित कर दिया। फिर कुछ समय बाद वह होश में आया।
 मेरे चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा और बोला कि
आप मुझ से बड़े हो, मुझ पर कुछ दया करो और यह बताओ कि आप मेरे लोक में क्यों आए हो ?
 तब मैंने काल पुरुष को बताया कि
 कुछ जीवात्माएं भक्ति करके अपने निज घर सतलोक में वापिस जाना चाहती हैं। उन्हें सतभक्ति मार्ग नहीं मिल रहा है। इसलिए वे भक्ति करने के बाद भी इसी लोक में रह जाती हैं। मैं उनको सतभक्ति मार्ग बताने के लिए और तेरा भेद देने के लिए आया हूं कि तूं काल है, एक लाख जीवों का आहार करता है और सवा लाख जीवों को उत्पन्न करता है तथा भगवान बन कर बैठा है। मैं इनको बताऊंगा कि तुम जिसकी भक्ति करते हो वह भगवान नहीं, काल है।




 इतना सुनते ही काल बोला कि
यदि सब जीव वापिस चले गए तो मेरे भोजन का क्या होगा ? मैं भूखा मर जाऊंगा। आपसे मेरी प्रार्थना है कि तीन युगों में जीव कम संख्या में ले जाना और सबको मेरा भेद मत देना कि मैं काल हूं, सबको खाता हूं। जब कलियुग आए तो चाहे जितने जीवों को ले जाना। 
ये वचन काल ने मुझसे प्राप्त कर लिए। कबीर साहेब ने धर्मदास को आगे बताते हुए कहा कि सतयुग, त्रोतायुग, द्वापरयुग में भी मैं आया था और बहुत जीवों को सतलोक लेकर गया लेकिन इसका भेद नहीं बताया। अब मैं कलियुग में आया हूं और काल से मेरी वार्ता हुई है।
काल ब्रह्म ने मुझ से कहा कि
अब आप चाहे जितना जोर लगा लेना, आपकी बात कोई नहीं सुनेगा। प्रथम तो मैंने जीव को भक्ति के लायक ही नहीं छोड़ा है। उनमें बीड़ी, सिगरेट, शराब, मांस आदि दुव्र्यसन की आदत डाल कर इनकी वृत्ती को बिगाड़ दिया है। नाना-प्रकार की पाखण्ड पूजा में जीवात्माओं को लगा दिया है।
 दूसरी बात यह होगी कि जब आप अपना ज्ञान देकर वापिस अपने लोक में चले जाओगे तब मैं (काल) अपने दूत भेजकर आपके पंथ से मिलते-जुलते बारह पंथ चलाकर जीवों को भ्रमित कर दूंगा। महिमा सतलोक की बताएंगे, आपका ज्ञान कथेंगे लेकिन नाम-जाप मेरा करेंगे, जिसके परिणामस्वरूप मेरा ही भोजन बनेंगे।

 यह बात सुनकर कबीर साहेब ने कहा कि
आप अपनी कोशिश करना, मैं सतमार्ग बताकर ही वापिस जाऊंगा और जो मेरा ज्ञान सुन लेगा वह तेरे बहकावे में कभी नहीं आएगा।
 सतगुरु कबीर साहेब ने कहा कि
हे निरंजन ! यदि मैं चाहूं तो तेरे सारे खेल को क्षण भर में समाप्त कर सकता हूं परंतु ऐसा करने से मेरा वचन भंग होता है। यह सोच कर मैं अपने प्यारे हंसों को यथार्थ ज्ञान देकर शब्द का बल प्रदान करके सतलोक ले जाऊंगा और कहा कि -


सुनो धर्मराया, हम संखों हंसा पद परसाया। जिन लीन्हा हमरा प्रवाना, सो हंसा हम किए अमाना।।


 (पवित्र कबीर सागर में जीवों को भूल-भूलइयां में डालने के लिए तथा अपनी भूख को मिटाने के लिए तरह-2 के तरीकों का वर्णन)


 द्वादस पंथ करूं मैं साजा, नाम तुम्हारा ले करूं अवाजा। द्वादस यम संसार पठहो, नाम तुम्हारे पंथ चलैहो।। 


प्रथम दूत मम प्रगटे जाई, पीछे अंश तुम्हारा आई।। यही विधि जीवनको भ्रमाऊं, पुरुष नाम जीवन समझाऊं।। 


द्वादस पंथ नाम जो लैहे, सो हमरे मुख आन समै है।। कहा तुम्हारा जीव नहीं माने, हमारी ओर होय बाद बखानै।। 


मैं दृढ़ फंदा रची बनाई, जामें जीव रहे उरझाई।। देवल देव पाषान पूजाई, तीर्थ व्रत जप-तप मन लाई।। 


यज्ञ होम अरू नेम अचारा, और अनेक फंद में डारा।। जो ज्ञानी जाओ संसारा, जीव न मानै कहा तुम्हारा।।


 (सतगुरु वचन)


 ज्ञानी कहे सुनो अन्याई, काटो फंद जीव ले जाई।। जेतिक फंद तुम रचे विचारी, सत्य शबद तै सबै बिंडारी।। 


जौन जीव हम शब्द दृढावै, फंद तुम्हारा सकल मुकावै।। चैका कर प्रवाना पाई, पुरुष नाम तिहि देऊं चिन्हाई।। 
ताके निकट काल नहीं आवै, संधि देखी ताकहं सिर नावै।। 


उपरोक्त विवरण से सिद्ध होता है कि
 जो अनेक पंथ चले हुए हैं। जिनके पास कबीर साहेब द्वारा बताया हुआ सतभक्ति मार्ग नहीं है, ये सब काल प्रेरित हैं। अतः बुद्धिमान को चाहिए कि सोच-विचार कर भक्ति मार्ग अपनांए क्योंकि मनुष्य जन्म अनमोल है, यह बार-बार नहीं मिलता। कबीर साहेब कहते हैं कि --

कबीर मानुष जन्म दुर्लभ है, मिले न बारम्बार। 
तरूवर से पत्ता टूट गिरे, बहुर न लगता डारि।


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सत् साहिब

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