महन्त व गद्दी परम्परा - एक पाखंड - महंत परम्परा की हकीकत

गद्दी तथा महन्त परम्परा की जानकारी



महन्त व गद्दी परम्परा की जानकारी:- किसी एकांत स्थान पर या शहर व किसी गाँव में कोई महान आत्मा सन्त या साधक रहा करता था। उसके शरीर त्यागने के पश्चात् उसकी याद बनाए रखने के लिए उनके शरीर के अन्तिम संस्कार स्थल पर एक पत्थर या ईंटों की यादगार बना दी जाती है। फिर उस पवित्रात्मा के अनुयाई या वंशज उसकी पत्थर की मूर्ति रख लेते हैं। कुछ समय उपरान्त श्रद्धालु जाते हैं। कुछ धन दान करने लग जाते हैं। उसे मन्दिर का रूप दे देते हैं तथा उस संत व ऋषि के वंशजों को धन उपार्जन का लालच हो जाता है। 

वे बहकाना प्रारम्भ करते हैं कि जो यहाँ दर्शन करने आता है उसको पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है। सर्व लाभ मिलते हैं जो इसी महापुरूष के जीवन काल में शिष्यों को मिलते थे। यह मूर्ति साक्षात् उसी संत जी को ही जानों। जो यहाँ नहीं आएगा उसका मोक्ष संभव नहीं आदि-आदि।

उन नादानों को कोई पूछे कि जैसे कोई वैद्य था, वह नाड़ी देखकर दवाई देता था, रोगी स्वस्थ हो जाता था। उस वैद्य की मृत्यु के पश्चात् उसकी मूर्ति बनाकर स्थापित करके कोई लालची कहे कि यह मूर्ति उसी वैद्य वाला कार्य करती है, जो इसके दर्शन करने आएगा वह पूर्ण स्वस्थ हो जायेगा या स्वयं नकली वैद्य बन कर कोई बैठ जाए कि मैं भी दवाई देता हूँ। परन्तु सर्व उपचार औषधि के ग्रन्थ के विपरीत दे रहा है। वह धोखा दे रहा है क्योंकि केवल धन उपार्जन उसका उद्देश्य है। किसी भी सन्त या प्रभु की मूर्ति आदरणीय यादगार तो है परन्तु पूजनीय नहीं है।

ऐसे ही किसी संत या प्रभु की मूर्ति बनाकर उसकी आड़ में कोई पुजारी व महन्त कहे कि मैं भी नाम देता हूँ। वह महानुभाव सर्व साधना उसी पवित्र शास्त्रा के विपरीत दे रहा है जो उस महान संत ने अपने अनुभव का लिखा है। तो वह नकली संत व महंत स्वयं भी दोषी है तथा अनुयाइयों का भी जीवन व्यर्थ करने का भार अपने शीश पर ले रहा है। संत तो एक समय में एक ही आता है। उसके मार्ग में करोड़ों नकली संत, महन्त तथा आचार्य बाधक बनते हैं।

किसी संत जी के शरीर त्यागने के बाद संत या महन्त परम्परा प्रारम्भ होती है। पूर्व संत के स्थान की रक्षार्थ एक प्रबन्धक चुना जाता है, जिसे महन्त कहा जाता है। वह केवल उस पवित्र यादगार की देखभाल करने के लिए ही नियुक्त किया जाता है। फिर लालच वश वह स्वयं ही गुरु बन बैठता है तथा भक्ति चाहने वाली प्यारी आत्मायें उस पर आधरित होकर अपना जीवन व्यर्थ कर जाती हैं। महन्त परम्परा का नियम बना रखा है कि पूर्व महन्त का प्रथम पुत्र महन्त पद का अधिकारी होगा, चाहे वह शराबी हो, चाहे वह अज्ञानी हो। यह भक्ति मार्ग है, इसमें केवल पूर्ण संत ही जीव उद्धार कर सकता है। दास ने दो-तीन महन्त परम्परा की पुस्तक पढ़ी।

उनमें देखा कि:-

1. एक दो वर्ष का बच्चा गद्दी पर बैठा दिया। फिर वह बड़ा होकर नाम दान करने लग गया। दूसरी पुस्तक में पढ़ा कि एक पाँच वर्ष के बच्चे का पिता जी जो महन्त जी था अचानक मृत्यु को प्राप्त हो गया। बाद में संगत ने तथा उसकी माता जी ने उस पाँच वर्षीय बच्चे को महंत पद पर नियुक्त कर दिया। कुछ वर्ष पर्यन्त वह गुरु जी बन गया।

2. एक महन्त परम्परा के इतिहास को पढ़ा कि महन्त को कोई संतान नहीं हुई। उसकी मृत्यु हो गई। भाई की मृत्यु पहले हो चुकी थी। कोई संतान नहीं थी। गद्दी की रखवाली के लिए एक सेवक को उस कुल में संतान होने तक अस्थाई महन्त नियुक्त कर दिया। कुछ समय उपरान्त महन्त कुल में किसी के लड़का हुआ, अस्थाई महंत गद्दी लेकर भाग गया। किसी अन्य शहर में स्वयं ही गद्दी स्थापना करके महन्त बन बैठा वहाँ नई दुकान खोल ली तथा पूर्व स्थान पर एक अढाई वर्ष का बच्चा महन्त बना दिया।

3. एक महन्त परम्परा का इतिहास देखा कि बड़ा बेटा घर त्याग गया। उस से छोटे को महन्त पद पर नियुक्त कर दिया। कुछ समय पर्यन्त वहाँ मन्दिर बन गया तथा अधिक चढ़ावा (भेंट पूजा का धन) आने लगा। उस बड़े वाले की संतान ने कहा कि इस मन्दिर पर हमारा अधिकार है, इस कारण झगड़ा प्रारम्भ हुआ। गद्दी पर विराजमान महन्त जी की हत्या कर दी गई। फिर उसका बड़ा बेटा महन्त अर्थात् गद्दी का अधिकारी नियुक्त कर दिया। उसकी भी हत्या कर दी गई। फिर उसका दूसरा भाई गद्दी पर बैठाया गया। दूसरे जो अपने को अधिकारी बताते थे उन्होंने नया स्थान बना कर नई दुकान खोल ली। एक दूसरे पर मुकदमें करके सुखमय जीवन को लालच में नरक बना लिया। वह धाम कहां रहा? वह तो कुरूक्षेत्र वाला महाभारत के युद्ध का मैदान हो गया। कुछ महन्तों ने सन्त बनाने की एजेंसी ले रखी है। लाल वस्त्र धारण करवाते हैं। पूर्व नाम को बदल कर अन्य नाम रख देते हैं। फिर वह बनावटी महन्त का बनावटी शिष्य नकली सन्त बनकर भोली आत्माओं के जीवन के साथ खिलवाड़ करता है तथा अनमोल मनुष्य जीवन को स्वयं भी व्यर्थ कर रहा है तथा भोली आत्माओं के जीवन को भी नाश कर रहा है तथा महापाप का भागी बन रहा है।

 जिस समय राजा परिक्षित जी को सर्प ने डसना था। उस समय पूर्ण गुरु की आवश्यकता पड़ी क्योंकि पूर्ण सन्त बिना जीव का कल्याण असम्भव है। उस समय पृथ्वी के सर्व ऋषियों ने राजा परिक्षित को दीक्षा देने तथा सात दिन श्रीमदभागवत सुधसागर की कथा सुनाने से मना कर दिया। क्योंकि सातवें दिन पोल खुलनी थी इसी कारण से कोई सामने नहीं आया। स्वयं श्री मद्भागवत सुधासागर के लेखक महर्षि वेदव्यास जी ने भी असमर्थता व्यक्त की। क्योंकि वे ऋषिजन प्रभु से डरने वाले थे। इसलिए भी राजा परिक्षित के जीवन से खिलवाड़ करना उचित नहीं समझा।



राजा परिक्षित जी के कल्याण के लिए महर्षि सुखदेव जी को स्वर्ग से बुलाया गया। जिसने राजा को दीक्षा दी तथा सात दिन तक कथा सुनाकर राजा परिक्षित जी का जितना उद्धार ऋषि सुखदेव जी कर सकते थे, किया। वर्तमान के गुरु, सन्त, महन्त तथा आचार्य स्वयं ही प्रभु के संविधान से अपरिचित हैं। इसलिए भयंकर दोष के पात्र बनकर दोषी हो रहे हैं।

ओरों पंथ बतावहीं, स्वयं न जाने राह।
अनअधिकारी कथा-पाठ करे व दीक्षा देवें, बहुत करत गुनाह।


वर्तमान में कथा व ग्रन्थों का पाठ करने वालों व नाम दान करने वालों की बाढ़ सी आई हुई है। क्योंकि सर्वपवित्र धर्मों की पवित्रत्माऐं तत्व ज्ञान से अपरिचित हैं। जिस कारण नकली गुरुओं व सन्तों तथा महन्तों का दाव लगा हुआ है। जिस समय पवित्र भक्त समाज आध्यात्मिक तत्वज्ञान से परिचित हो जाएगा उस समय इन नकली सन्तों, गुरुओं व आचार्यों को छुपने का स्थान नहीं मिलेगा, पलायन करके पीछा छुड़वाना पड़ेगा।

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